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Thursday, November 10, 2011

कहीं ले न डूबे भारत को इटली की 'बला'-

कहीं ले न डूबे भारत को इटली की 'बला'
ग्रीस के वित्तीय संकट पर बेल आउट के पैकेज को लेकर मार्केट में खुशी की बयार चली ही थी कि इटली पर आर्थिक संकट बढ़ने की खबर ने फिजा ही बदल दी। अब हालत यह है कि अमेरिका और यूरोपीय शेयर मार्केट में इटली संकट का नेगेटिव का असर पड़ना शुरू हो गया है।

शुक्रवार को खुलने वाले भारतीय शेयर मार्केट में इसकी छाप नजर आएगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने साफ कह दिया है कि अगर इटली के वित्तीय संकट को जल्द सुलझाया न गया तो ग्लोबल स्लोडाउन की हवा और तेज हो सकती है। भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। असर जरूर पड़ेगा, मगर कितना असर पड़ेगा, यह बदलती परिस्थितियों के अनुरूप नीतियों में किस तरह से बदलाव किया जाता है, उस पर निर्भर करेगा। इटली के आर्थिक संकट के बारे में बताती जोसफ बर्नाड की रिपोर्ट:

क्या है इटली का संकट?
इटली का आर्थिक संकट जर्मनी, ग्रीस या अन्य यूरोपीय देशों से कुछ अलग है। विकसित देशों की इकॉनमी बॉन्ड्स मार्केट पर निर्भर करती है। सरकार अपनी आमदनी बॉन्ड्स के जरिए बढ़ाती है और आम आदमी भी बॉन्ड्स के जरिए मुनाफा कमाता है। इटली में नकदी का संकट आया। डिमांड में कमी के कारण औद्योगिक उत्पादन कम हुआ। इसका असर चीजों पर पड़ा। टैक्स कलेक्शन कम हुआ। आमदनी कम हुई और खर्चा बढ़ा। इस कमी को पाटने के लिए सरकार ने बॉन्ड्स का सहारा लिया। बॉन्ड्स जारी किए गए, लेकिन एक गलती हो गई।

बॉन्ड्स ज्यादा बिके, इसके लिए मार्केट में तेजी लाई गई और बॉन्ड्स पर ज्यादा ब्याज बढ़ा दिया। मौजूदा समय में बॉन्ड्स पर 7 पर्सेंट का ब्याज चल रहा है। अगले तीन वर्षों में सरकार ने जितने बॉन्ड्स लोगों को दिए, उसे अब वापस करना है। इसके लिए 475 अरब यूरो चाहिए। ऐसा ब्याज बढ़ने के कारण हुआ है। दूसरी तरफ सरकार पूरी तरह से कर्ज में डूबी हुई है। उस पर करीब 2 खरब यूरो का कर्ज है। कुल आमदनी का करीब 20 से 30 पर्सेंट तो इसके ब्याज पर चला जाता है। आमदनी घट रही है, ऐसे में उसे समझ में नहीं आ रहा है कि देश को कैसे चलाए। बैंकों और वित्तीय संस्थानों की वित्तीय हालत खस्ता हो गई। उन्होंने अपने नकदी को जो इनवेस्टमेंट किया था, उसका रिटर्न मार्केट से नहीं मिल रहा है। लोन की वसूली नहीं हो पा रही है। बढ़ती महंगाई ने आम आदमी के बजट को बिगाड़ दिया है।

क्या है बड़ी समस्या?
इटली के सामने बड़ी समस्या है कि बॉन्ड्स पर उसका ब्याज दर 7 पर्सेंट से ज्यादा है। ऐसे में उसको मार्केट से कर्ज भी इतने पर्सेंट पर मिलेगा। इसके अलावा अन्य देशी या वित्तीय संस्थानों को तय नियम के अनुसार इस ब्याज दर पर उसको कर्ज देना पड़ेगा। अगर इस ब्याज दर इटली ने कर्ज लिया तो उसको चुकाने की क्षमता उनके पास नहीं है क्योंकि पिछले कुछ सालों के दौरान इटली का जीडीपी ग्रोथ नेगेटिव जोन में चला गया था। बेशक वह फिर पॉजिटिव जोन में आया है। इजाफा नाममात्र का हुआ है , लेकिन स्थिति अभी गड़बड़ है।

क्या है रास्ता ?
मौजूदा परिस्थिति में रास्ता एक ही है कि इटली को बेल आउट पैकेज दिया जाए। यूरोपियन फाइनैंशल स्टेबिलिटी फैसिलिटी ( ईएफएसएफ ) के नियमों के तहत इटली को अधिकतम 1.60 खरब यूरो का पैकेज ही दिया जा सकता है। मगर अंतरराष्ट्रीय तय नियमों के साथ। ऐसा इसलिए किया जाता है कि बेल आउट पैकेज देने का पॉजिटिव परिणाम आ सके। बेल आउट पैकेज के साथ कुछ शर्तें जुड़ी होती है। इसमें खर्चों में कटौती करना। आमदनी बढ़ाने के नए रास्ते खोजना। दूसरे देशों के साथ कारोबार बढ़ाने के लिए राहत देना ताकि मार्केट में मनी फ्लो बढ़ सके।

प्राइवेट कंपनियों के साथ नए प्रोजेक्ट करना , मगर प्राइवेट कंपनियों को छूट में कमी करना। अपने देश की कंपनियों पर अपने मार्केट में निवेश के लिए दबाव बनाना। मगर परिस्थितियां देखते हुए इटली में ऐसा करना मुश्किल लग रहा है।

भारत पर असर
अगर अमेरिका या यूरोपीय शेयर मार्केट में खलबली वाली परिस्थितियां बनीं तो शेयर मार्केट में उतार दौर भारी पड़ सकता है। कॉमोडिटी मार्केट का संतुलन बिगड़ सकता है। सोना और चांदी में फॉरेन इनवेस्टर तेजी का खेल जारी रख सकते है। वे खाद्यान्न मार्केट का स्वाद भी बिगाड़ सकता है। आयात मूल्य बढ़ने पर भारत की क्या स्थिति होगी , इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। सबसे अहम बात कि आईटी और वित्तीय सर्विस पर नेगेटिव असर पड़ेगा। इस वक्त दोनों सेक्टरों में सबसे अधिक नौकरियां युवाओं को मिल रहे हैं।

वित्तीय सेवाओं का योगदान देश की जीडीपी में योगदान बढ़कर 52 पर्सेंट पर पहुंच गया है। इन दोनों सेक्टरों को अगर विदेशों से ऑर्डर मिलना बंद हो गया तो भारत में बिजनेस कम होगा। बिजनेस कम होगा तो यहां पर नई नौकरियों के अवसर तो कम हो जाएंगे। साथ में जो कंपनियां इन सेक्टरों में कार्यरत हैं , उनको अपने को मार्केट की अपेक्षा के अनुरूप रखना भी मुश्किल हो जाएगा। एक और अहम पक्ष है विदेशी निवेश। भारत अपने मार्केट को संवारने और प्रोजेक्टों को पूरा करने के लिये विदेशी निवेश की जरूरत है।

अगर विदेशी निवेश रुक जाएगा तो इसका असर भारत की पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। डीएसई के पूर्व प्रेजिडेंट बी . बी . साहनी का कहना है कि अगर भारतीय शेयर मार्केट में खलबली का माहौल बना तो इसको रोकना मुश्किल हो सकता है।

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